Friday, September 17, 2021

ऐ मन

बेड़ियाँ भी तू बांधता है,

और बंध के झटपटाता भी तू ही है…

 

हर क्षण हो सकने वाले

हज़ारों सम्भावनाओं को, खंगालता भी तू ही है

और फिर भी, उसी क्षण में पूर्णतः 

ना खो पाने की पीड़ा, होती भी तुझे ही है…

 

कैसा विचित्र बालक है रे तू? 

 

मुस्कुराते हुए असहज भी तू है

और मुस्कुराने की इच्छा भी तेरी ही है…

 

मना करने के सारे बहाने तेरी ही देन हैं,

और निष्क्रियता में अपूर्णतः का एहसास भी तुझी को है …

 

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