काला अंधेरा साया,
जानलेवा जाल ये किसने बिछाया?
उलझ सी गई,
मैं कब कहाँ कैसे?
अच्छी तो थी जिंदगी,
अब क्यूँ मुझे फाँसे?
ये घिनहोनी मकड़ियों का अंबार,
छल और कपटी बदबू भरमार,
अब बक्ष भी दे मुझे इन विचारों के फैलाव से,
छोड़ मुझे और जीने दे खुलके।
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