मैं तन नही हूँ, मैं मन भी नहीं हूँ ।
पता नही मैं क्या हूँ पर ऐसे ही बैठे बैठे,
जिसको मैं "मैं" समझता था,
वह बोल उठा -
पता नही मैं क्या हूँ पर ऐसे ही बैठे बैठे,
जिसको मैं "मैं" समझता था,
वह बोल उठा -
इस बार मैं तुझसे बोलूंगा,
इस फुदकते, उछलते मन संग,
अब मैं खुसपुसा के खेलूंगा
इस गुत्थाधारी शरीर को मैं
शब्दो के चाबुक से ढकेलूँगा
अपनी अंतर-ज्योति से जगमगाते इस,
क्षणिक माया-जग में मैं नाचूंगा
ऐ नटखट मन और युवा तन तुम,
अब चलो शिखर की पित्र-गुफा तक,
संकोच नही, अपराध बोध बिन,
बस बढा कदम तू अपनी माँ संग।
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