तू ने साथ दिया इन बत्तीस साल,
पतले डंडे से बना तू इतना विशाल,
तेरे सामर्थ्य से ही हुआ था वोह पहली बार,
मन को स्थिर कर उस बच्चे ने देखा अनुग्रह का संसार...
जग में बड़े होकर जब बढ़ने लगा मन का बोझ,
उसे भुलाने मैंने ही खिलाया था तुझे मादक भोज,
उलझे मन से मोह-जाल में फस,
मैंने तुझे विष के पकवान परोसे,
फिर कौन होता हूँ मैं जो,
तुझे तेरे आकार के लिए कोसे?
बिना समझे तेरी प्रकृति, छोड़ तेरा संग,
तुझपे डालूँ मैं बेफजूल अपेक्षाओं का वजन,
आज गुरु कृपा से मैं अपने,
मन के बिखरे टुकड़े बटोरे खड़ा हूँ,
पर कैसे तुझसे मैं बेखबरी के पंद्रह साल वोह,
झटपट भुलाने की उम्मीद कर सकता हूँ?
तुझे जोडती मुझसे मेरी साँसे,
तू है मेरी आत्मा का मंदिर,
नहीं है कोई जल्दी मुझे मेरे दोस्त,
प्रेम से मिलेगी हमें हर मंजिल...
यह मंजिल की कल्पना भी तो मन की उपज है,
है यह संभावनाओं के समुन्दर में से कटोरी भर जल,
न करूँ अब मैं मंजिल की चिंता,
अपने गुरु की पुकार सुन अब
चलूँ हर पल...
5 comments:
बहुत सुंदर कविता हैं सर🙏🙏🙏
बहुत प्यारी कविता है आप मल्टी टैलेंटेड हो । क्या आपको कभी लगा की मुझमें ये नहीं है
सर मैं और मेरा परिवार बिहार में पिछ्ले 4 महिने से फसे हुए है हमने कई बार labour department मे पंजीयन और सम्पर्क भी किया लेकिन कुछ नही हुआ, कृपया आप कुछ मदद कीजिये।
घर वापसी पंजीयन क्रमांक:-
1)172562
2)177226
3)84565 आदि
सारे पैसे भी खत्म हो चुके है, मदद कीजिये, सर हम जगदलपुर, जिला बस्तर के निवासी है। मदद कीजिये, वाहन की व्यवस्था कराइये।
❤️🙏
अभी कहाँ हैं आप
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