मन करता है
कि अब बस टूट जाऊं;
बिखर के,
टुकड़ों में,
बह जाऊं मैं,
आसुओं में...
मन करता है की,
अब बस टूट ही जाऊं;
बे-कारण ही सही,
बिन बहाने,
जीत के इस माहौल में,
अब छोड़ दूँ साहस मैं...
क्या है ये अजीब सी चाहत?
समझने की गलती है शायद-
इच्छा है टूटने की नहीं,
है यह मिट जाने की ललक,
अरे, शब्दों से खेलना छोड़ दो साहब,
दिखा भी दो मुझे मेरे शिव की झलक !
तुम्हारी हार जीत के है न कोई मायिने,
न वोह मिले मुझे, बिना खुद को मिटाए ...