राजमा अब वैसा स्वाद नहीं लाता,
भूख है—पर मन कुछ खा नहीं पाता।
सब कुछ रखा है यथावत यहाँ,
बस आप नहीं… और कुछ भी कहाँ।
भरवा टमाटर—हथेली की छाप,
लौकी की दाल—सेहत की बात।
बथुए का रायता—हँसी-सा घुला,
हर निवाले में अपनापन मिला।
काका भैया की आधी प्याली,
जिसमें सुकून उतरती थी गहरी काली।
पैसों का रखतीं पूरा हिसाब,
पर हर कोने में छोड़ जातीं प्यार का उधार।
अब ये रसोई एक सूना मंदिर है,
मसाले हैं—पर सुगंध नहीं दरकिनार।
डायरी की पंक्तियाँ दाल में घुलतीं,
जैसे कोई प्रार्थना धीमे से खुलती।
कढ़ी —जो पलाश को न भायी,
अब भी बर्तनों में आपकी छवि समायी।
जब तक थीं—हर स्वाद था घर जैसा,
अब घर… बस एक वीरान हवेली सा।