i
पैसा जग का द्रव प्रवाह है,
चक्रों का गतिशील राह है।
जहाँ भी आता, कम्पन लाता,
मन का संतुलन डगमगाता।
स्थिर बिंदु से हटना होता,
तब ही कुछ पाने का रथ धोता।
ii
जब रोगी हो कोई प्रिय प्राणी,
तब मूल्य नहीं—बने बलिदानी।
ख़र्च लगे हो जैसे साधना,
या विधि की कोई कठिन परीक्षा।
कभी ये धन एक यत्न बन जाता,
कभी यह विकल ज्वार सा आता।
iii
यह मुद्रा नहीं, यह कर्म का बीज,
अदृश्य हाथ की सौपी हुई चीज़।
इससे मिलता अवसर जीवन,
दिव्यता का छोटा साधन।
यह ऊर्जा है, गति की कारा—
इसको साधो, यही तुम्हारा।
iv
सिर्फ उपयोग न दृष्टि बनाओ,
अर्थ में अर्थ का मूल लगाओ।
इस क्षण में क्या है सार तुम्हारा?
क्या उसमें है स्वर तुम्हारा?
जहाँ हृदय की गूंज बसी हो,
उर्जा वहीं समर्पित हो।
v
जो दिखता है, वह केवल माया,
भीतर की सत्ता है सच्चा पाया।
चालक हाथ में खेल रचाया,
नियति ने दृश्य-भ्रम फैलाया।
जो असमय आया, अधूरा लगे,
शायद वही दिव्य संकेत जगे।
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