सत्य के थे पैर चार,
किया उनपे हमने ही वार,
गंदगी भोग कर जो,
सजा दिए झूठ के बाजार।
किया उनपे हमने ही वार,
गंदगी भोग कर जो,
सजा दिए झूठ के बाजार।
अब आया झूठों का उबाल,
फैला निर्दयी खेलों का जाल,
सीधी साधी जिंदगी बनी जो,
रण जहां खुद ही से हो टकरार।
यहाँ सब संभव पर सब उचित नहीं,
जो लगे सही हो वो सहज नहीं,
इस नकली बसंत में सुंदर फूल दो,
छोड़ इन्हें, ये मौसम हैं बेकार।
कुछ सच्चे जन को तू परख,
क्षण भर का जीवन, जी बेझिझक,
मत भूल कि है तुझे सत्य से प्यार,
ये शमशान सही, तू तो जिंदा है ना यार?
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