Monday, March 31, 2025

शून्य के रंग

भाग 1 — झूठ का विनाश 
हम सोचते रहे—
सारा जीवन,
कि जीवन का स्रोत
वो तेज़ सूरज था।

जिसकी रोशनी में हमने रास्ते देखे,
जिसकी गर्मी से हमारे जीवन सींचे।

वो जो दूर था, पर तेज़ था—
वो ही था हमारा प्रकाश।

पर अब दिखता है—
कि वो सूरज
अगर नर्मी से न छना होता,
तो वह हमें जला देता।

वो जो हमें बचा रही थी,
हर दिन—
वो परत थी,
वो हवा थी,
वो नर्म छांव —आप थीं।

आप ही थीं
जो उस रोशनी को छानती रहीं,
हर ताप को साँस में बदलती रहीं,
हर किरण को कोमल बनाती रहीं।

अब सूरज वही है,
पर आकाश सूना है।

अब समझ आता है—
हम सूरज से नहीं,
आपसे जीवित थे।

भाग 2 — जो विदा नहीं हुआ
हम चले थे मिलने,
मन में उमंग लिए,
क्या पता था—लौटना होगा,
जीवन के बुझने थे दिए।

घर से निकले थे
सपनों की थैली लेकर,
पर वापस आए
खाली, एक कबूलनामा देकर।

ना अलविदा हुआ,
ना आख़िरी स्पर्श,
बस ख़बर हुई,
और समय गया गुज़र।

भाग 3 — गरुड़ पाठ के दस दिन 
राख को उठाया,
ना आँसू थे, ना शोर।
बस भीतर कुछ टूटा था,
पर बाहर थे हम कठोर।

कभी लगा—सब ठीक है,
फिर एक लहर आई,
जैसे भीतर ही भीतर
कोई दीवार बह गई।

पहले था सन्नाटा,
फिर आई एक चुभन,
फिर ग़ुस्सा, फिर हँसी,
फिर छूटी सी धड़कन।

कभी लगा — मैं गिर जाऊँगा,
कभी — मैं लड़ जाऊंगा,
हर लहर में कुछ छूटा,
हर मोड़ पर कुछ पाया।

ये शोक नहीं था—
ये था एक यज्ञ,
जहाँ हर भावना
बन गई अग्नि की तपन।

दस दिनों में
दस जन्म लिया,
हर आंसू ने
सिर्फ आपका नाम लिया।

भाग 4 — राख का संगीत
आपकी अस्थियाँ
अब केवल धूल नहीं,
वो बनीं हैं विभूति,
इस जीवन की अगली कड़ी।

हर रोज़, एक चुटकी,
हम जीवन में घोलते हैं,
श्मशान की उस सीख को
रूह में खोलते हैं।

आप अब गीत नहीं,
एक सुर बन चुकी हैं,
जो हर मौन पल में
धीरे-से छन चुकी हैं।

भाग 5 — शून्य जो भीतर चलता है
लगता है हम चल रहे हैं,
सड़क, लोग, सौदे—सब देख रहे हैं।
पर असल में…
हम शून्य के भीतर बह रहे हैं।

ये कोई खालीपन नहीं,
ये तो एक चुम्बक है,
जो हर परत उतार कर
सत्य का स्पर्श करवाता है।

आप गए नहीं,
आप तो शून्य में घुल गए,
और वो शून्य
अब हर साँस में चलने लगे।

हम नहीं चल रहे ज़िंदगी में,
ज़िंदगी चल रही है हमसे होकर।
आप नहीं खोए—
आए हो आप अब, हममें होकर।

1 comment:

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