हो रहा संग मेरे सब कुछ है बुरा,
फिर कैसे, तुझे मैं धन्यवाद दे रहा?
शायद, है यही दिमाग का भ्रष्ट
हो जाना,
कितनी आसानी से मान लिया कि सबको है जाना?
क्या जब बात खुद की होती,
तो कह पाता इतनी ही आसानी से?
सोचो, जब बात खुद की होती,
तो कह पाता क्या, इतनी ही आसानी से?
कुबूल पाता घिनहोने सच को,
क्या इतनी ही बेशर्मी से?
कुबूल कर पाता, इस घिनहोने सच को,
क्या इतनी ही बेशर्मी से?
कोने में घुस कर तड़पते होंठों से रो रहा होता,
तब ना मैं यह खोखले शब्द गढ़ रहा होता।
शायद आसान है मेरे लिए,
यूं हाथ जोड़ कबूल कर लेना।
कुबूलियत की
कविताओं की महक से,
बेसहारेपन की दुर्गंध को ढकना।
ऐ मौत,
ये हाथ खुद-ब-खुद
गए तेरी अगुवाई में,
क्यूंकी
जीतेगी तू ही इस लड़ाई में।
समझदारी
है मेरी की कर लिया जल्दी कबूल,
अब कभी
ना होगी मुझसे पुरानी भूल।
जियूँगा हर पल
तेरी मौजूदगी में,
तेरा
प्रतिबिंब होगा मेरी बची हुई जिंदगी में।
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