Thursday, July 25, 2024

Let's Cut to the Chase

Let's cut to the chase dear. What do you really want? Beyond your exalted miseries, your celebrated evasions, what is it that you really want?   

Now, please don’t pretend that you are not in control of your shit, of your destiny or of your mind-made misery. Please don’t. As I said, let us really cut to the chase.

What do you want? Do you want to sleep some more? Pretend that it’s not really your responsibility? Pretend that you can’t handle the pain?

Or do you, for some more time, just want to carry on like this? Pretending that you are insufficient, incomplete and incapable?

If you do – then by all means, please continue. But do give me a deadline ‘coz I am getting bored of it. I am bored of accepting the commonplace excuses of finite thought. I have seen magic. I know it’s there within me. Waiting to be unlocked. I know you have answers to everything. I know that you know. You have the damn keys to the doors you love banging against. You only pretend to look for a Master Oogway while you stuff momos down your Panda throat. You know there is no one else coming. It’s just you and me. I am the only Master you have got. I am the only Master you need. You know that. Or do you not?

 
मौके पे चौका नहीं, हम छक्का मारते हैं,
चाहे अन्दर हो या बाहर,
बाधाओं को पकड़, हवा में फेकते हैं ...
शरीर और मन पर, रख कर संयम,
खुद को पुचकारते, मुस्कुराते हरदम,
ले के हवा का कश गहरा, बड़ी सी छलांग मारते हैं ...
 

All I am asking of you, my friend, is to take your fighter jet for a spin. Not on the runway ‘coz that’s where the cool crowd hangs; but in the sky – where it really belongs.

नए पंख

 1.

माँ, ये क्या मुझे है हो रहा?

चलते हुए खो गया मैं रस्ता यहाँ - 

अब न राह दिखती, न है कोई सहारा, 

दिमागी बोझ से है कंधा झुक सा गया ...

2.

बेटा, ये क्या है तू कह रहा? 

गौर से तो देख तू जरा - 

डरावना भले, पर सुन्दर है तेरा जीवन सजा,

जमीन तो क्या, अब पूरा आसमान है तेरा ...


नया जरूर तू इन हवाओं में अभी,

सीखेगा इन्हें, भले नए हों नियम सभी,

तो खोज मत तू चलने का कोई नया सहारा,

ये बोझ है तेरे नए पंखो का ...


जब मिल सकता है तू रोज़ मुझसे बादलों के बीच,

उंचाई से डर के अपनी आँख न भींच,

चलने या दौड़ने का नहीं, समय है ये उड़ने का,

बहुत किया संघर्ष अब मस्त हो के पंख फैला ...  

 

Wednesday, July 24, 2024

अब बस!

1.

मैं पूछूँ खुद से -

जिंदगी में अब क्या करूँ? 

चढ़ तो गया हूँ ऊपर बहुत,

इस अहम के नशे से और क्या लूँ ? 

2. 

आता कोई जवाब, उससे पहले 

चेहरे पे एक मुस्कान आ गयी,

विचार की जगह,

हाथ में कलम दे गयी ...

3. 

कभी सत्ता, कभी शौहरत,

और कभी अपनों से खेलने में कसर न है मैंने छोड़ी,

अब घर बैठ, कलम घिस,

परिवार में रहने का मन करता है बस यूँ ही ... 

 4.

थोडा आलस है, थोडा डर भी,

थोड़ी परेशानियां, थोड़े बहाने,

कुछ छोड़ना है, कुछ पकड़ना,

कुछ कम करना है, कुछ ज्यादा ...

5. 

इस नाप-तोल को तो है चलते रहना,

क्यूंकि परेशानी चाहे जितनी हो बड़ी,

है तो वो मुझसे ही जन्मी,

मुझसे बड़ी तो वो हो नहीं सकती ...

6.

क्या तू पूछता और क्या है कहता,

बना इस अहम के धुंए का शीशा,

अपने फैलाव को समेट,

और शीशे पे स्याही तू रचता जा ...



तू देखता जा!

मेरी हार को मेरी पहचान मत बना - 

मैं जीतूँगा, बस तू देखता जा !


जंग जब खुद की खुद से हो,

थोडा वक़्त जरूर लगेगा,

अच्छे से समझने को - 


क्यूंकि है जंग नहीं पर प्रेम मिलाप ये,

जिसमें जीवन की संभावनाएं खुद के अतीत से मिलें,

मिलन ये ऐसा की इसी में कई कहानियां गढ़ें-


है नायक या खलनायक, इसकी मत कर तू चिंता,

क्यूंकि क्या हार है क्या जीत, ये तो समय ही बताएगा,

अभी इन कहानियों का अंत न हुआ - 


इसीलिए, मेरी हार को मेरी पहचान मत बना,

मैं जीतूँगा, 

बस, तू देखता जा -


बघिया मेरी













1.

ये कहानी है

एक सुंदर सी बघिया की, 

और चंद नन्हे से फूलों की,

पर था इसमें एक पेड़ भी ...

2.

बीते बचपन-जवानी फूलों के,

बघिया की गोद में खिलखिलाते,

एक पेड़ की छाया में पलते,

हँसते हुए, गीत उसके गाते ... 

3. 

वो फूल तो थे बघिया के दिवाने,

पर पेड़ समझे कि वे उसके अहम के दृश्य से थे चहकते,

अपने झूठे वहम में, मूर्ख पेड़ वो बादलों को ललकारे,

बेखबर, की थी वो बघिया ही, जो उसे बचा के रखे ...

4.

क्यूंकि जब बादल निकलें वृक्ष के अहम को तोड़ने, 

बघिया फूलों को आघोष में लिए, हाथ जोड़ तूफानों को रोके, 

श्रृष्टि  के कहर को झेल, अपनों के जीवन सीचें, 

बेखबर पुष्प और पेड़, बस खेलते रहे खेल दुनिया के ...

5.

पर पता नहीं कब और कैसे,

उस पेड़ में और भी भारी राक्षस आ बसे,

जो बघिया को कोसें और मारें,

डरावने रूपों से फूलों की रूह झक्झोंकें ...

6.

राक्षसों का सिलसिला था चलता रहा,

बघिया के प्रेम से मेहेकता था फूलों का समा,

कई साल बघिया ने राक्षसों से सबको बचा के रखा,

जब हुआ बहुत तो बेचारी ने बिमारी को कबूला ...

7.

आज बघिया के पत्ते हैं झड गए,

और अर्ध-ज्ञान के अहम से फूले वृक्ष को छोड़ गए,

 उनकी ममता की खुशबू से आज भी फूलों का जीवन महके,

याद में उनकी, फूलों के आँसू सूखे ...

8.

अब, फूल देखें पेड़ को बिन बघिया के घेराव के,

डरे, सोचें, बिन सोचे वो डरे ,

न चाहते हुए भी नफरत करें,

उस वृक्ष में उन्हें वोह खौफनाक राक्षस जो दिखें ...

9.

राक्षस अहम का -

हंसने में असहज, आक्रोश में नहीं,

जिसने अपनों से प्रेम के दो बोल कभी बोले नहीं,

जिसमें खुद से पहले, दूसरों को रखने की क्षमता नहीं ...

10.

राक्षस अज्ञानता का -

जो पूर्ण हो पैसे से, प्रेम से नहीं,

जो तौले रुतबे को, देखे भाव को नहीं,

जो है भरा सा, ज़रा भी खाली नहीं ...

11.

पर आज, उन राक्षसों से आजाद,

अपनी खुशबू से भी सिखा रही अपने फूलों को उनकी बघिया माँ,

दिखा रही राक्षस के पीछे का बेबस पौधा,

डर है जिसे अपने कमजोर होने का ...

12.

माँ, आपने अपनी छाया से इस फूल को न होने दिया जुदा,

एक सुन्दर परिवार चुन जो नियति के हवाले था कर दिया,

आज ध्यान में आपके साथ होने का एहसास फिर वापस आ गया,

पर उस मूर्ख पेड़ को अपना पाने का इम्तिहाँ ये क्यूँ दे दिया? 




Saturday, July 20, 2024

नटखट मस्तियाँ

जिस्म की चुस्कियां, मन की अठखेलियाँ,

अजब है तेरा,

क्षणिक आकर्षण को समर्पण,

हो तू नंगा, पर छोड़ मत  दर्पण ...

क्या है सही, क्या गलत,

ये तुझे ही है समझना,

जंगल है, यहाँ मार्ग कई,

पर ना है कोई अपना ...

जब जीवन लागे नीरस,

छाँव में दोस्तों संग जा हंस,

इस हंसी का सुख है अपना,

पर भूल से इसे परमानंद ना समझ ...  

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